त्यौहार होते हैं यादगार
बचपन से कमाई करने तक
घर के बड़ों के साथ बैठ
अपने पहले घर में मनाते थे हर बार ।
ज़्यादा तर तो वहीं होते थे
अगर बाहर पढ़ते तो करते थे इंतज़ार
घर जाने का जहां था प्यार और दुलार ।
वो घर था सदा बहार
आमदनी कर पाते थे उस घर से थोड़ा बाहर
दादा पिता और माँ ने तो यही किया
बस हमारी पीढ़ी है बसी दूर बाहर ।
ख़ुशक़िस्मत है जो अब भी वहीं है
सीखना जिस घर में हुआ और कमाना भी वहीं ।
सियासत और अर्थव्यवस्था ने बदली हमारी अवस्था
धीरे धीरे वो बहार चल दी कहीं और
जहां घर है वहाँ ठिकाना नहीं
और जहां ठिकाना है वो घर अगर बस में हो तो जाना नहीं ।
धीरे धीरे त्योहार भी नए ठिकाने पर मनाने पड़े
नए लोग और नए रिश्ते अपनाने पड़े ।
अब जब बस में है ही नहीं
जहां बैठें है उसी को सजाने और वहीं गुनगुनाने लगे ।
बैठें है आग के पास, लोहड़ी है जनाब
इस आग में सेक है और मन में सुकूं है ।